संविधान में प्रावधान :-
- भारतीय संविधान के भाग 5 में अनुच्छेद 124 से 147 तक, उच्चतम न्यायलय के गठन, स्वतंत्रता, न्यायक्षेत्र, शक्तियां, प्रक्रिया आदि का वर्णन है।
- भारत के उच्चतम न्यायालय का उद्घाटन 28 जनवरी 1950 को किया गया। यह भारत सरकार अधिनियम 1935 के तहत लागू संघीय न्यायालय का उत्तराधिकारी था।
- भारतीय संविधान ने एकीकृत न्याय व्यवस्था की स्थापना की है, जिसमें शीर्ष स्थान पर उच्चतम न्यायालय व इसके अधीन विभिन्न राज्यों में उच्च न्यायालय हैं।
- न्यायालय की एकल व्यवस्था भारत सरकार अधिनियम 1935 से ग्रहण की गयी है।
उच्चतम न्यायालय का गठन :-
- वर्तमान समय में उच्चतम न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश एवं 30 अन्य न्यायाधीश हैं।
- मूलतः उच्चतम न्यायालय में न्यायधीशों की संख्या 8 थी। संसद द्वारा यह संख्या क्रमिक रूप से बढ़ाई गयी।
न्यायाधीशों की नियुक्ति :-
- उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
- उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में राष्ट्रपति अन्य न्यायाधीशों एवं उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के परामर्श के बाद करता है।
- एवं इसी प्रकार उच्चतम न्यायालय के अन्य न्यायधीशों की नियुक्ति में राष्ट्रपति मुख्य न्यायाधीश एवं अन्य न्यायधीशों के परामर्श से करता है।
परामर्श विवाद :-
उच्चतम न्यायालय द्वारा "परामर्श" शब्द की विभिन्न व्याख्याएं दी गयी :-
- प्रथम न्यायाधीश मामला (1982)- उच्चतम न्यायालय ने कहा परामर्श का मतलब सहमति नहीं बल्कि विचारों का आदान-प्रदान है।
- द्वितीय न्यायाधीश मामला (1993)- उच्चतम न्यायालय ने अपने पूर्व फैसले को परिवर्तित किया और कहा की परामर्श का मतलब सहमति प्रकट करना है। इस तरह व्यवस्था दी गयी कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा दी गयी सलाह राष्ट्रपति को मानना बाध्यता होगी, लेकिन मुख्य न्यायाधीश यह सलाह अपने दो वरिष्ठम सहयोगियों से विचार-विमर्श के बाद देगा।
- तृतीय न्यायाधीश मामला (1998)- उच्चतम न्यायालय ने अपना मत दिया कि परामर्श प्रक्रिया को मुख्य न्यायाधीश द्वारा 'बहुसंख्यक न्यायाधीशों की विचार' प्रक्रिया के तहत माना जायेगा। केवल भारत के मुख्य न्यायाधीश का एकल मत ही परामर्श प्रक्रिया को पूर्ण नहीं करता है, उसे चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों से सलाह करनी चाहिए यदि इनमें से दो का मत भी पक्ष में नहीं है तो वह नियुक्ति के लिए सिफारिश नहीं भेज सकता। न्यायालय ने व्यवस्था दी कि बिना अन्य न्यायाधीशों के सलाह के भेजी गयी सिफारिश को मानने के लिए सरकार बाध्य नहीं है।
मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति :-
- 1950 से 1973 तक व्यावहारिक तौर पर उच्चतम न्यायालय में वरिष्ठतम न्यायाधीश को बतौर मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया जाता था। लेकिन 1973 में तीन वरिष्ठतम न्यायाधीशों के होते हुए भी ए0 एन0 रॉय को भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त कर दिया जिससे वरिष्ठतम व्यक्ति की नियुक्ति की व्यवस्था का हनन हुआ।
- सरकार के इस निर्णय की स्वतंत्रता को उच्चतम न्यायालय ने दूसरे न्यायाधीश मामले (1993) में कम किया और व्यवस्था दी कि उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश को ही भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया जाना चाहिए।
न्यायाधीशों कि अर्हताएं :-
उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए निम्न अर्हताएं होनी चाहिए :-
- भारत का नागरिक होना चाहिए।
- उच्च न्यायालय का कम से कम 5 साल के लिए न्यायाधीश होना चाहिए। या
- उसे उच्च न्यायालय या विभिन्न न्यायालयों में मिलाकर 10 वर्ष तक वकील होना चाहिए। या
- राष्ट्रपति के मत में उसे सम्मानित न्यायवादी होना चाहिए।
नोट - संविधान में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश कि नियुक्ति के लिए न्यूनतम आयु का उल्लेख नहीं है।
शपथ या प्रतिज्ञान :-
- उच्चतम न्यायालय के लिए नियुक्त न्यायाधीश को पद ग्रहण से पूर्व राष्ट्रपति या राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त व्यक्ति के सामने निम्न शपथ लेनी होती है :-
- भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा एवं निष्ठा रखूँगा।
- भारत कि प्रभुता एवं एकता अखंडता को अक्षुण्ण रखूँगा।
- अपनी पूरी योग्यता,ज्ञान और विवेक से अपने पद के कर्तव्यों का भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना पालन करूँगा।
- संविधान और विधियों कि मर्यादा बनाये रखूँगा।
न्यायाधीशों का कार्यकाल :-
- संविधान में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों का कार्यकाल तय नहीं किया गया है। लेकिन इस संबंध में तीन प्रावधान किये गए हैं :-
- वह 65 वर्ष कि आयु तक पद पर बना रह सकता है। इसमें किसी प्रकार का प्रश्न उठने पर संसद द्वारा स्थापित संस्था इसका निर्धारण करेगी।
- वह राष्ट्रपति को लिखित त्यागपत्र दे सकता है।
- संसद की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा उसे पद से हटाया जा सकता है।
न्यायाधीशों को हटाना :-
- राष्ट्रपति के आदेश द्वारा उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को उसके पद से हटाया जा सकता है, लेकिन राष्ट्रपति ऐसा तभी करेगा जब हटाने हेतु संसद द्वारा उसी सत्र में ऐसा सम्बोधन किया गया हो। एवं राष्ट्रपति के आदेश को संसद के दोनों सदनों का विशेष बहुमत होना चाहिए।
- न्यायाधीश को हटाने का आधार दुर्व्यवहार या साबित कदाचार होना चाहिए।
हटाने की महाभियोग प्रक्रिया :-
- न्यायाधीश जांच अधिनियम (1968) में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाने के लिए महाभियोग प्रक्रिया का वर्णन किया गया है :-
- लोकसभा के मामले में निष्कासन प्रस्ताव में 100 सदस्यों एवं राजयसभा के मामले में 50 सदस्यों द्वारा हस्ताक्षर करने के बाद अध्यक्ष या सभापति को दिया जाना चाहिए।
- अध्यक्ष या सभापति इस प्रस्ताव को शामिल भी कर सकते हैं या अस्वीकार कर सकते हैं।
- यदि प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जाये तो अध्यक्ष या सभापति को जांच के लिए तीन सदस्यीय समिति गठित करनी होगी।
- समिति में शामिल सदस्य :-
- मुख्य न्यायाधीश या उच्चतम न्यायालय का कोई न्यायाधीश।
- किसी उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश।
- प्रतिष्ठित न्यायवादी।
- यदि समिति न्यायाधीश को दुर्व्यवहार का दोषी या असक्षम पाती है तो सदन इस प्रस्ताव पर विचार कर सकता है।
- विशेष बहुमत से दोनों सदनों में प्रस्ताव पारित कर इसे राष्ट्रपति को भेजा जाता है।
- अंत में राष्ट्रपति न्यायाधीश को हटाने का आदेश जारी कर देते हैं।
वेतन एवं भत्ते :-
- उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को वेतन, भत्ते, विशेषाधिकार, अवकाश एवं पेंशन का निर्धारण समय-समय पर संसद द्वारा किया जाता है।
- वित्तीय आपातकाल के दौरान इनको कम नहीं किया जा सकता है।
- वेतन भत्तों के अलावा निःशुल्क आवास, और अन्य सुविधाएँ जैसे- चिकित्सा, कार, टेलीफोन आदि भी मिलते हैं।
- सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश एवं अन्य न्यायाधीशों की पेंशन उनके अंतिम माह के वेतन का 50 प्रतिशत निर्धारित है।
कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश :-
- राष्ट्रपति किसी न्यायाधीश को भारत के उच्चतम न्यायालय का कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश नियुक्त कर सकता है जब :-
- मुख्य न्यायाधीश का पद रिक्त हो।
- अस्थायी रूप से मुख्य न्यायाधीश अनुपस्थित हो।
- मुख्य न्यायाधीश अपने दायित्वों के निर्वहन में असमर्थ हो।
तदर्थ न्यायाधीश :-
- जब कभी कोरम पूरा करने में स्थायी न्यायाधीशों की संख्या कम हो रही हो तो भारत का मुख्य न्यायाधीश किसी उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश को अस्थायी काल के लिए उच्चतम न्यायालय में तदर्थ न्यायाधीश नियुक्त कर सकता है।
- मुख्य न्यायाधीश ऐसी नियुक्ति संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एवं राष्ट्रपति की पूर्ण मंजूरी के बाद ही कर सकता है।
- इस पद पर नियुक्ति के लिए व्यक्ति के पास उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की अर्हताएं होनी चाहिए।
- इस पद पर नियुक्त न्यायाधीश को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की न्यायनिर्णयन, शक्तियां और विशेषाधिकार प्राप्त होंगे।
सेवानिवृत्त न्यायाधीश :-
- भारत का मुख्य न्यायाधीश उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश से अल्पकाल के लिए उच्चतम न्यायालय में कार्य करने का अनुरोध कर सकता है। लेकिन ऐसा राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति से ही किया जा सकता है।
- इसप्रकार से नियुक्त न्यायाधीश राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित भत्तों का उपभोग करने का अधिकारी होता है।
- ऐसे नियुक्त न्यायाधीश को उच्चतम न्यायालय के अन्य न्यायाधीश की तरह शक्तियां एवं विशेषाधिकार मिलेंगे लेकिन वह उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश नहीं माना जायेगा।
उच्चतम न्यायालय का स्थान :-
- संविधान ने उच्चतम न्यायालय का स्थान दिल्ली घोषित किया है। लेकिन मुख्य न्यायाधीश को अधिकार है कि उच्चतम न्यायालय का स्थान कहीं और नियुक्त करे। लेकिन इसके लिए राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति की जरुरत होगी।
न्यायालय की प्रक्रिया :-
- राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद उच्चतम न्यायालय प्रक्रिया एवं सञ्चालन हेतु नियम बना सकता है।
- संवैधानिक मामलों एवं सन्दर्भों को राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 143 के तहत बनाया जाता है और निर्णय पांच न्यायाधीशों की पीठ द्वारा लिया जाता है।
- अन्य मामलों का निर्णय सामान्यतौर पर तीन न्यायाधीश की पीठ करती है। एवं सभी निर्णय बहुमत से लिए जाते हैं, लेकिन मत भिन्नता हो तो न्यायाधीश असहमति का कारण बता सकते हैं।
उच्चतम न्यायालय की स्वतंत्रता :-
- उच्चतम न्यायालय अतिक्रमण, दबाव, एवं हस्तक्षेप से स्वतंत्र होकर कार्य कर सके इसके लिए संविधान में निम्न प्रावधान किये गए हैं :-
- नियुक्ति का तरीका : उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति, राष्ट्रपति न्यायिक सदस्यों की सलाह से करता है। इस व्यवस्था से कार्यकारिणी के पक्षपात में कटौती होती है एवं इससे न्यायिक नियुक्ति पर राजनीति का प्रभाव नहीं पड़ता।
- कार्यकाल की सुरक्षा : उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को कार्यकाल की सुरक्षा प्रदान की जाती है। केवल संविधान में वर्णित प्रक्रिया के तहत राष्ट्रपति पद से हटा सकता है। लेकिन न्यायाधीशों का कार्यकाल राष्ट्रपति की दया पर निर्भर नहीं करता है।
- निश्चित सेवा शर्तें : उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन, भत्ते, विशेषाधिकार एवं पेंशन का निर्धारण संसद द्वारा किया जाता है और इसमें किसी भी प्रकार की कमी नहीं की जा सकती, केवल वित्तीय आपात को छोड़कर।
- संचित निधि से व्यय : उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों का वेतन एवं कार्यालयीन व्यय, भत्ते तथा पेंशन संचित निधि पर भारत होते हैं। संसद इस पर केवल चर्चा कर सकती है मतदान नहीं कर सकती।
- न्यायाधीशों के आचरण पर बहस नहीं : महाभियोग के अतिरिक्त संविधान में न्यायाधीशों के आचरण पर संसद में या राज्य विधानमंडल में बहस नहीं की जा सकती है।
- सेवानिवृत्त के बाद वकालत पर रोक : सेवानिवृत्त न्यायाधीश को भारत में कहीं भी किसी न्यायालय या प्राधिकरण में कार्य करने की स्वतंत्रता नहीं है। ऐसा इसलिए किया गया ताकि वो निर्णय देते समय भविष्य का ध्यान न रखें।
- अपनी अवमानना में दंड देने की शक्ति : उच्चतम न्यायालय उस व्यक्ति को दण्डित कर सकता है जो उसकी अवमानना करे। इसके कार्यों एवं फैसलों की आलोचना किसी इकाई द्वारा नहीं की जा सकती।
- अपना स्टाफ नियुक्त करने की स्वतंत्रता : भारत के मुख्य न्यायाधीश को बिना कार्यकारी हस्तक्षेप के अधिकारी एवं कर्मचारियों की नियुक्ति का अधिकार है। एवं सेवा शर्तों को भी तय कर सकता है।
- इसके न्यायक्षेत्र के कटौती नहीं की जा सकती : संसद को उच्चतम न्यायालय के न्यायक्षेत्र एवं शक्तियों में कटौती का अधिकार नहीं है। संसद केवल वृद्धि कर सकती है।
- कार्यपालिका से पृथक : संविधान निर्देश देता है कि राज्य लोक-सेवाओं के क्रियान्वयन के मामले पर कार्यपालिका को न्यायपालिका से अलग रखें। अर्थात कार्यकारिणी को न्यायिक शक्तियां रखने का अधिकार नहीं है।
उच्चतम न्यायालय की शक्तियां एवं क्षेत्राधिकार :-
मूल क्षेत्राधिकार :
- उच्चतम न्यायालय भारत के संघीय ढांचे की विभिन्न इकाईयों के बीच किसी विवाद पर संघीय न्यायालय की तरह निर्णय देता है। ऐसे विवाद जो :-
- केंद्र व एक या एक से अधिक राज्यों के बीच हो। या
- केंद्र और कोई राज्य या राज्यों का एक तरफ होना एवं एक या अधिक राज्यों का दूसरी तरफ होना। या
- दो या अधिक राज्यों के बीच।
- उपरोक्त संघीय विवाद पर उच्चतम न्यायालय में "विशेष मूल न्यायक्षेत्र" निहित है, अर्थात किसी अन्य न्यायालय को विवादों के निपटाने में इस तरह की शक्तियां प्राप्त नहीं है।
नोट : विवाद ऐसा होना चाहिए जिसमें विधिक अधिकार निहित हो, राजनितिक प्रकृति का प्रश्न नहीं होना चाहिए तथा नागरिक द्वारा केंद्र या राज्य के खिलाफ लाये गए मामले इसके तहत स्वीकार नहीं होंगे।
मूल क्षेत्राधिकार समाहित नहीं :
- विवाद जो कि पूर्व संवैधानिक संधि या समझौते एवं अन्य सामान संस्थाओं को लेकर उत्पन्न हुआ हो।
- कोई विवाद जो संधि या समझौते के बाहर उत्पन्न हुआ हो और ऐसी व्यवस्था हो कि ऐसा विवाद इस न्यायक्षेत्र के तहत नहीं आता।
- अंतर्राज्यीय जल विवाद।
- वित्त आयोग से सम्बंधित मामले।
- केंद्र एवं राज्यों के बीच कुछ खर्चों एवं पेंशन का समझौता।
- केंद्र एवं राज्यों के बीच वाणिज्यिक प्रकृति वाला साधारण विवाद।
न्यायादेश क्षेत्राधिकार :
- संविधान ने उच्चतम न्यायालय को नागरिकों के मूल अधिकारों के रक्षक एवं गारंटर के रूप में स्थापित किया है।
- उच्चतम न्यायालय को अधिकार प्राप्त है कि वह बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, उत्प्रेषण, प्रतिषेध, एवं अधिकार पृच्छा आदि पर न्यायादेश जारी कर नागरिक के मूल अधिकारों की रक्षा करे।
- इस सम्बन्ध में उच्चतम न्यायालय को मूल न्यायाधिकार प्राप्त है एवं नागरिक को अधिकार है कि वह बिना अपील याचिका के सीधे उच्चतम न्यायालय में जा सकता है।
नोट:
- न्यायादेश क्षेत्राधिकार उच्चतम न्यायालय का विशेषाधिकार नहीं है, यह अधिकार उच्च न्यायालय को भी प्राप्त है। नागरिक के मूल अधिकार का हनन होने पर वह उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय जा सकता है।
- उच्चतम न्यायालय केवल मूल अधिकारों के क्रियान्वयन के संबंध में न्यायादेश जारी कर सकता है अन्य उद्देश्य से नहीं जबकि उच्च न्यायालय मूल अधिकारों के साथ अन्य उद्देश्य के लिए भी जारी कर सकता है। अर्थात न्यायादेश क्षेत्राधिकार मामले में उच्च न्यायालय का क्षेत्र ज्यादा व्यापक है।
अपीलीय क्षेत्राधिकार :
- भारत का उच्चतम न्यायालय अपील का सर्वोच्च न्यायालय है, यह निचली अदालतों के फैसलों के खिलाफ सुनवाई निम्न मामलों में करता है :-
- संवैधानिक मामला : संवैधानिक मामले एवं ऐसे मामले जिसमें विधि का पूरक प्रश्न निहित है अनुचित फैसले के के आधार पर उच्चतम न्यायालय में अपील कि जा सकती है।
- दीवानी मामले : दीवानी मामलों के तहत उच्चतम न्यायालय में किसी भी मामले को लाया जा सकता है यदि उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर दे कि -
- मामला सामान्य महत्व के पूरक प्रश्न पर आधारित है।
- ऐसे मामले का निर्णय उच्चतम न्यायालय द्वारा किया जाना आवश्यक है।
- आपराधिक मामले : उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय के आपराधिक मामलों के फैसलों के खिलाफ सुनवाई करता है यदि उच्च न्यायालय ने :-
- आरोपी व्यक्ति के दोष मुक्ति के आदेश को पलट कर सजा-ए-मौत दी हो।
- किसी अधीनस्थ न्यायालय से मामला लेकर आरोपी व्यक्ति को दोषसिद्ध करके मौत की सजा दी हो।
- यह प्रमाणित करे की संबंधित मामला उच्चतम न्यायालय में ले जाने योग्य है।
- किसी अपील में आरोपी व्यक्ति को दोषमुक्त किया हो और उसे उम्रकैद या दस वर्ष की सजा सुनाई हो।
- स्वयं किसी मामले को अधीनस्थ न्यायालय से लिया हो एवं आरोपी व्यक्ति को उम्रकैद या दस वर्ष की सजा सुनाई हो।
- विशेष अनुमति वाले मामले : उच्चतम न्यायालय को अधिकार है कि अपना मत, विशेष अनुमति प्राप्त अपील को दे जो किसी फैसले से संबंधित मामले से जुडी हो। फैसला किसी न्यायालय या पंचाट से संबंधित हो।
सलाहकार क्षेत्राधिकार :
- संविधान का अनुच्छेद 143 राष्ट्रपति को निम्न दो मामलों में उच्चतम न्यायालय से राय लेने का अधिकार देता है:-
- सार्वजनिक महत्व के किसी मसले पर विधिक प्रश्न उठने पर। इस मामले में उच्चतम न्यायालय अपना मत दे भी सकता है और नहीं भी।
- किसी पूर्व संवैधानिक संधि या समझौते आदि मामलों पर किसी विवाद के उत्पन्न होने पर। इस मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा राष्ट्रपति को अपना मत देना अनिवार्य है।
- उपरोक्त दोनों मामलों में उच्चतम न्यायालय का मत सिर्फ सलाहकारी है, राष्ट्रपति इस मत को मानने के लिए बाध्य नहीं होता है।
अभिलेख न्यायालय :
- अभिलेख न्यायालय के रूप में उच्चतम न्यायालय के पास निम्न दो शक्तियां हैं :-
- उच्चतम न्यायालय की कार्यवाही एवं उसके फैसले सार्वकालिक अभिलेख एवं साक्ष्य के रूप में रखे जायेंगे। इन अभिलेखों पर किसी अन्य अदालत में चल रहे मामले के दौरान प्रश्न नहीं उठाया जा सकता है। इनको विधिक सन्दर्भों की तरह माना जायेगा।
- उच्चतम न्यायालय के पास अवमानना के लिए दण्डित करने का अधिकार है। इसमें 6 वर्ष के लिए सामान्य जेल या 2000 रुपये तक अर्थदंड या दोनों शामिल हैं।
- न्यायालय की अवमानना सिविल या आपराधिक दोनों प्रकार की हो सकती है। सिविल अवमानना का अर्थ है स्वेच्छा से किसी फैसले, न्यायादेश की अवहेलना जबकि आपराधिक अवमानना का अर्थ है ऐसा कार्य करना या सामग्री प्रकाशित करना :-
- जिसमें न्यायालय की स्थिति को कमतर आँका जाये या बदनाम किया जाये।
- न्यायिक प्रक्रिया में बाधा पहुँचाना।
- न्याय प्रशासन को किसी भी तरीके से रोकना।
नोट: किसी मामले का निर्दोष प्रकाशन एवं उसका वितरण, न्यायिक कार्यवाही रिपोर्ट की निष्पक्ष, उचित आलोचना और प्रशासनिक दृष्टि से इस पर टिप्पणी को न्यायालय की अवमानना नहीं माना जाता है।
न्यायिक समीक्षा की शक्ति :
- उच्चतम न्यायालय में न्यायिक समीक्षा की शक्ति निहित है। इसके तहत न्यायालय केंद्र एवं राज्य दोनों स्तरों पर विधायी एवं कार्यकारी आदेशों की संवैधानिकता की जांच करता है एवं अधिकरातीत पाए जाने पर उनको असंवैधानिक एवं शून्य कर सकता है।
- न्यायिक समीक्षा की आवश्यकता निम्नलिखित हेतु है:-
- संविधान की सर्वोच्चता के सिद्धांत को बनाये रखने के लिए।
- केंद्र एवं राज्यों के बीच संतुलन बनाये रखने के लिए।
- नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा के लिए।
- किसी विधायी प्रक्रिया या कार्यपालक आदेश की संवैधानिकता वैधता को उच्चतम न्यायालय में निम्न तीन आधारों पर चुनौती दी जा सकती है:-
- यह मूल अधिकारों का उल्लंघन करता हो।
- यह निर्धारित प्राधिकार से बाहर का हो। तथा
- यह संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करता हो।
नोट : संविधान में न्यायिक समीक्षा का प्रयोग कहीं भी नहीं किया गया है।
उच्चतम न्यायालय की अन्य शक्तियां :-
- यह राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति के निर्वाचन के संबंध में किसी प्रकार के विवाद का निपटारा करता है। यह शक्ति किसी अन्य न्यायालय को प्राप्त नहीं है।
- यह संघ लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्यों के व्यवहार एवं आचरण की जांच करता है जब राष्ट्रपति ने संदर्भित किया हो। यदि दुर्व्यवहार का दोषी पाता है तो न्यायालय राष्ट्रपति से उसको हटाने की सिफारिश कर सकता है। एवं इस मामले में न्यायालय की सलाह राष्ट्रपति पर बाध्यकारी है।
- न्यायालय को अपने स्वयं के फैसले की समीक्षा करने की शक्ति है। यह सामुदायिक एवं न्याय हित में अपने पूर्व फैसलों को बदल सकता है।
- उच्च न्यायालय में पड़े लंबित मामलों को मंगवा सकता है और निपटारा कर सकता है। तथा किसी लंबित मामले व अपील को एक उच्च न्यायालय से दूसरे में स्थानांतरित कर सकता है।
- इसकी विधियां भारत के सभी न्यायालयों के लिए बाध्य होंगी। इसके डिक्री या आदेश पूरे देश में लागू होते हैं।
- यह संविधान का इकलौता व्याख्याता है। यह संविधान के प्रावधानों एवं उसमें निहित तत्वों को अंतिम रूप प्रदान करता है।
- इसे न्यायिक अधीक्षण की शक्ति प्राप्त है इसका देश के सभी न्यायालयों के क्रियाकलापों पर नियंत्रण है।
उच्चतम न्यायालय के अधिवक्ता :-
उच्चतम न्यायालय में कार्य करने वाले अधिवक्ताओं की निम्न तीन श्रेणियां होती हैं :-
वरिष्ठ अधिवक्ता :
- ये वो अधिवक्ता हैं जिन्हें उच्चतम न्यायालय वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में मान्यता देता है।
- न्यायालय ऐसे अधिवक्ता को जो उसकी नजर में ख्यात विधिवेत्ता हो, कानूनी मामलों में पारंगत हो, संविधान का विशेष ज्ञान हो, बार की सदस्यता हो, उसकी सहमति से वरिष्ठ अधिवक्ता नियुक्त कर सकता है।
- वरिष्ठ अधिवक्ता बिना एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड के बहस में उपस्थित नहीं हो सकता।
- वरिष्ठ अधिवक्ता किसी अधीनस्थ न्यायालय या न्यायाधिकरण में बिना कनिष्ठ के पेश नहीं हो सकता। एवं प्रार्थना या शपथपत्र के सम्बन्ध में अनुदेश प्राप्त करने के लिए अधिकृत नहीं है।
एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड :
- एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड ही उच्चतम न्यायालय के समक्ष किसी प्रकार का रिकॉर्ड प्रस्तुत कर सकते हैं एवं अपील फाइल कर सकते हैं।
- ये किसी पार्टी की ओर से उच्चतम न्यायालय के समक्ष पेश भी हो सकते हैं।
अन्य अधिवक्ता :
- ये वो अधिवक्ता होते हैं जिनका नाम अधिवक्ता अधिनियम 1961 के अंतर्गत किसी राज्य बार कॉउंसिल में दर्ज होता है।
- ये अधिवक्ता किसी पार्टी की ओर से उच्चतम न्यायालय के समक्ष पेश हो सकते हैं और बहस भी कर सकते हैं।
- इनको उच्चतम न्यायालय में कोई दस्तावेज या मामला दायर करने का अधिकार नहीं होता है।